Friday, October 5, 2018

आपके लिए कहा जाता है कि आप गंभीर साहित्यकार की श्रेणी

लेकिन बंद होने से पहले बंगाल गज़ट हेस्टिंग्स और सुप्रीम कोर्ट के बीच मिलीभगत के इतने राजदार पर्दे खोल चुका था कि इंग्लैंड को इस मामले में दखल देनी ही पड़ी और संसद सदस्यों ने इस मामले में जांच बैठाई.
जांच पूरी होने के बाद हेस्टिंग्स और सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस, दोनों को ही महाभियोग का सामना करना पड़ा.
वैसे अख़बारों की दुनिया के लिए कहानी आज भी बहुत ज़्यादा नहीं बदली है. आज भी प्रेस का गला घोंटने की तमाम कोशिशें की जाती हैं.
सत्ता में बैठे तमाम बड़े लोगों के पास इतनी ताक़त होती है वो आम लोगों को अपनी बात मानने पर मजबूर कर ही देते हैं, ये आम लोग अख़बारों में क्या पढ़ना चाहिए और कैसे पढ़ना चाहिए सबकुछ इन्हीं ता़कतवर लोगों के अनुसार पढ़ रहे होते हैं.
राजनीति में तानाशाहों का होना कोई नई बात नहीं है. लेकिन सवाल उठता है कि आखिर मौजूदा वक़्त में यह इतना ख़तरनाक क्यों हो गया है?
दरअसल अब समाचार प्राप्त करने के इतने अधिक माध्यम हैं कि ग़लत और सही समाचार में फ़र्क पहचान पाना बहुत मुश्किल हो गया है.
फ़ेसबुक, व्हाट्सऐप, ट्विटर और भी ना जाने कितने माध्यमों के ज़रिए कई तरह के समाचार हरवक़्त हमारी नज़रों के सामने तैरते रहते हैं.
इसका नतीजा यह हुआ है कि दुनियाभर में लोग अपनी-अपनी विचारधारा के अनुसार बंटने लगे हैं.
सोशल मीडिया पर फ़ैली ख़बरें लोगों में हिंसा भड़काने का काम कर रही हैं. जैसे भारत में ही व्हाट्सऐप के ज़रिए बच्चा चोरी की कुछ ख़बरें फैल गईं और उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप भीड़ ने कुछ लोगों को मार भी दिया.
ऐसे माहौल में गूगल, फ़ेसबुक और ट्विटर जैसी कंपनियों की ज़िम्मेदारी बनती है कि वो ख़बरों के लिए कुछ मानक तय करें.
हमें याद रखना चाहिए कि हेस्टिंग्स जैसे लोग तो आते हैं और चले जाते हैं, लेकिन ये लोग अपनी परछाईं को हमेशा के लिए अंकित ज़रूर कर देते हैं.
हेस्टिंग्स जैसे लोग भारत में अपनी राजनीति को इस तरह से संगठित करते हैं कि करोड़ों की आबादी वाला भारत कुछ सैकड़ों लोगों के हाथों की कठपुतली बन जाता है.
आज से कई सौ साल पहले हेस्टिंग्स और हिक्की के बीच जो लड़ाई हुई थी वह मौजूदा वक़्त से ज़्यादा अलग नहीं है, उस में फ़र्क सिर्फ़ इतना है कि अब इस लड़ाई को लड़ने वाले हथियार बदल गए हैं.
लोकप्रिय लेखक चेतन भगत 9 अक्तूबर को अपना नया उपन्यास लेकर आ रहे हैं और इस बार ये उनके पहले उपन्यासों से अलग कहा जा रहा है क्योंकि इस बार वे प्यार करना नहीं, प्यार नहीं करना सिखा रहे हैं. किताब का नाम है - द गर्ल इन रूम 105. बीबीसी संवाददाता सर्वप्रिया सांगवान से बातचीत में उन्होंने अपनी किताब के साथ-साथ अपनी राजनीति पर भी बात की.
क्या अलग है आपकी किताब में इस बार?
पहली बार मैंने क्राइम पर किताब लिखी है. ये एक मर्डर मिस्ट्री है. अक्सर मैं प्रेम कहानियां लिखा करता था, लेकिन लगा कि काफ़ी लिख लिया इस पर. इसमें लिखा भी हुआ है 'एन अनलव स्टोरी'. एक लड़का है जो अपनी एक्स-गर्लफ्रेंड को भुला नहीं पा रहा है, उसको कैसे अनलव करता है, ये उसी पर आधारित है.
जब लव स्टोरी बेस्टसेलर बन रहीं थी तो फिर क्राइम स्टोरी क्यों?
जो चीज़ आपकी चल निकलती है, तो वही करते रहने पर भी काम चल जाएगा, लेकिन वो ग़लत होता है. मेरे पाठक भी तो मुझसे उम्मीद करते हैं कि कुछ सरप्राइज़, कुछ नया अंदाज़, कोई अनोख़ी चीज़ लेकर आऊं.
लव को तो कई लोग मार्केट करते रहते हैं. लेकिन कई लोग होते हैं जिनका ब्रेकअप हो जाता है, उन्हें काफ़ी टाइम लगता है उससे उबरने में. उनकी ज़िंदगी के एक-दो साल बर्बाद भी हो जाते हैं. इसलिए अनलविंग भी सीखना ज़रूरी है कि कैसे किसी इंसान को अपने सिस्टम से निकाल देना है.
इस कहानी में कश्मीर का बैकड्रॉप है. जो हीरोइन है वो कश्मीरी मुस्लिम है. जो लड़का है उसके पिता जी आरएसएस के नेता हैं. इन सब पर मुझे रिसर्च करनी पड़ी. कश्मीर पर, मुस्लिम पर, आरएसएस पर.
आपकी जितनी फिक्शन किताबें आईं, उनमें एक नंबर ज़रूर होता है. मसलन, 'वन नाइट एट कॉल सेंटर', 'टू स्टेट', 'थ्री मिस्टेक् ऑफ़ मा लाइफ़'. ये नंबर वाला टोटका क्या है?
क्योंकि मैं इंजीनियर था, बैंक में था तो ये बस उन्हीं दिनों की याद है कि मैं वहां से आया हूं. लेखक का तो बैकग्राउंड नहीं था.
विवादास्पद विषयों पर लिखना क्या आसान है आज के वक्त में?
हां, लिख सकते हैं. मैंने भी तो लिखी ही है. कश्मीरी मुस्लिम लड़की है. पहले 'थ्री मिस्टेक्स ऑफ़ माइ लाइफ़' लिखी थी जो गोधरा दंगों के बैकड्रॉप पर थी.
मैं फिल्म की सोच कर अलग क्यों लिखूंगा. कहानी अच्छी होनी चाहिए. कहानी अच्छी होगी तो किताब हिट होगी, किताब हिट होगी तो फिल्म बनेगी ही बनेगी. फिल्म अगर बननी भी हो तो किताब से बहुत कुछ बदल सकते हैं. लेकिन किताब लिखते हुए मुझे बस एक बात देखनी है कि ये लोगों को पसंद आए.
सबसे बेहतरीन कमेंट क्या मिला है?
लोगों ने कहा है कि उनकी ज़िंदगी बदली है मेरे लिखने से. कुछ पेरेंट्स जो अपने बच्चों की शादी के लिए नहीं मान रहे थे, लेकिन वो 'टू स्टेट' आने के बाद मान गए. अस्पतालों में कई सीरियस मरीज़ होते हैं, टीवी वगैरह देखने की इजाज़त उन्हें नहीं होती तो वो मेरी किताबें पढ़ते हैं. ज़्यादा खुश होते हैं वो. पॉज़िटिव महसूस करते हैं. लोगों ने बांटी हैं मेरी किताब 'टू स्टेट' अपने बारातियों को.
टिप्पणी तो हर तरह की मिली है, लेकिन दिल दुखाने की इजाज़त नहीं देता मैं किसी को. इतना कोई करीब़ ही नहीं है.
मैं खुद कहता हूं कि मैं लिटरेचर नहीं लिखता हूं. मैं चाहता हूं कि मेरी किताबें आम बच्चे पढ़ें. सिंपल किताबें हों, तभी तो बच्चे पढ़ते हैं इतने सारे. मैं चाहता हूं कि ज़ायादा लोग पढ़ें और वही मेरा उद्देश्य रहा है.
अरविंद अडिगा को, रुंधति रॉय को बुकर प्राइज़ मिला है, कभी आप भी वहां तक पहुंचने की सोचते हैं?
सबको सब कुछ नहीं मिलता है ज़िंदगी में. मिले तो अच्छा है, लेकिन मुझे लगता नहीं कि मुझे मिल सकता है. शायद मैं इतना अच्छा लिखता भी नहीं. लेकिन मुझे भी अपनी तरह का काम करने का हक़ है. अवॉर्ड नहीं जीते तो क्या, दिल तो जीत लिए. परसों एमेज़ॉन ने किताबों की डिलीवरी करवाई मुझसे. मैं खुद जाकर डिलीवर कर रहा था जिन्होंने प्री-ऑर्डर की है मेरी किताब.
मैंने एक स्लम में जाकर भी डिलीवर की अपनी किताब. धारावी में रहने वाली एक लड़की ने मेरी किताब ऑर्डर की थी. वो पल मेरे लिए बुकर प्राइज़ से बड़ा था कि एक स्लम में रहने वाली लड़की को मेरी किताब पसंद आ गई बजाय कि लंदन में रहने वाले किसी को आई और मुझे अवॉर्ड दे दिया.

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