रस्गोत्रा बताते हैं, 'मेरा इरादा तो ख़्रुश्चेव के यहाँ जाने का नहीं था. लेकिन नेहरू बहुत प्यारे शख़्स थे. नौजवान लोगों को हमेशा आगे आने का
मौका देते थे. मुझसे बोले तुम भी चलो और हाथ पकड़ कर मुझे अपनी कार में
बैठा दिया. वहाँ एक कमरे में एक मेज़ पर खाने का बहुत सा सामान रखा हुआ था. दूसरी मेज़ पर वोडका, वाइन्स और शराब की कुछ बोतलें रखी हुई थीं.'
'ख़्रुश्चेव
साहब ने वोडका के तीन गिलास भरने शुरू किए. गिलास छोटे थे, क्योंकि वो लोग तो 'नीट' पीते हैं. उन्होंने पहला गिलास तो पंडितजी को दिया और दूसरा मुझे पकड़ाया. मैं थोड़ा झिझका. लेकिन जवाहरलालजी ने खुद मुझसे कहा कि 'देखो
अगर पीते हो तो ले लो.' मैं पीता था, इसलिए मैंने ले लिया.'
'पंडितजी
ने उसे धीरे-धीरे 'सिप' करना शुरू किया. उनकी देखादेखी मैंने भी धीरे- धीरे पीना शुरू किया. ख़्रुश्चेव ने मेरी तरफ़ देखा और पंडितजी को संबोधित
करते हुए कहा कि मैं अगर एक मास्को में एक नौजवान को ये गिलास भर कर दूँ तो
वो इंतेज़ार नहीं करेगा कि मैं भी अपना गिलास भी भर लूँ. वो उसको तुरंत पी जाएगा. फिर उन्होंने मेरी तरफ़ देख कर कहा, 'अरे भाई खाली करो इस गिलास
को फ़ौरन.' जैसे ही मैंने अपना गिलास ख़त्म किया, उन्होंने मेरा दूसरा
गिलास भर दिया.'
'मैंने सोचा कि अब यहाँ से निकलना चाहिये. मैंने
घड़ी-वड़ी देखी. इस बीच उनकी बातचीत का एक घंटा हो चुका था. मैं अपना दिल
थामे हुए सोच रहा था कि पंडितजी क्या कहेंगे ? उन्होंने बहुत प्यार से मुझसे पूछा, 'भाई तुम ठीक हो न? फिर उन्होंने मुझे टेस्ट भी किया कि मैं
ठीक हूँ. उसमें मैं पास भी हो गया.''
रस्गोत्रा ने अपनी आत्मकथा 'अ लाइफ़ इन डिप्लोमेसी' में एक बड़ा ख़ुलासा
भी किया है कि 1962 में भारत चीन युद्ध के बाद जब अमरीका की 'इंटेलिजेंस'
को ये पता चला कि चीन परमाणु परीक्षण करने वाला है तो कैनेडी ने नेहरू को
अपने हाथ से पत्र लिखा कि अमरीका चीन से पहले भारत को परमाणु परीक्षण में मदद देने के लिए तैयार है.'
'लेकिन नेहरू ने इस पेशकश को स्वीकार नहीं किया. रस्गोत्रा याद करते हैं, 'कैनेडी का तर्क ये था कि अगर एशिया में कोई परमाणु बम परीक्षण करने
वाला देश होगा तो वो भारत जैसा प्रजातांत्रिक देश होना चाहिए. उनको भनक लगी थी कि चीन ऐसा करने जा रहा है. वो चाहते थे कि चीन के ऐसा करने से पहले
भारत सारी दुनिया को दिखा दे कि वो भी परमाणु बम संपन्न देश है.'
'उन्होंने
प्रस्ताव किया कि वो भारत को एक परमाणु बम दे देंगे और वो चीन से पहले
राजस्थान के किसी इलाके में उसका विस्फोट कर देगा. उसके बाद अगर चीन परमाणु विस्फोट करे भी तो उसका कोई ख़ास असर नहीं पड़ेगा.'
'पंडितजी की
प्रतिक्रिया सकारात्मक थी. उन्होंने भाभा को बुलवाया मुंबई से. उसी दिन जी
पार्थसार्थी चीन से वापस लौटे थे. पार्थसार्थी ने कहा कि ये हमारी विदेश नीति के ख़िलाफ़ है. विदेश नीति में अक्सर ये होता है कि मुद्दे जो होते हैं और किसी समस्या को हल करने का जो तरीका होता है, नेतृत्व उसका आदी हो
जाता हैं. उस आदत से बाहर निकलना बहुत मुश्किल होता है.'
'उनका कहना
था कि हम तो परमाणु बम के हमेशा ख़िलाफ़ रहे हैं और अहिंसक विदेश नीति में
यकीन करते हैं. फिर अगर रूसियों को इसका पता चल गया तो वो बुरा मान जाएंगे. अगर वो हमने मान लिया होता तो न तो पाकिस्तान 1965 में भारत पर
हमला करता और न ही 1971 का युद्ध होता.'
1971 के भारत पाकिस्तान युद्ध से पहले जब इंदिरा गाँधी अमरीका पहुंची तो राष्ट्रपति निक्सन ने बदसलूकी का सबसे बड़ा उदाहरण पेश करते हुए इंदिरा गाँधी को बैठक से पहले 45 मिनट तक इंतेज़ार करवाया.
मैंने एम के रस्गोत्रा से पूछा, 'आप वहाँ थे, क्या वास्तव में ऐसा हुआ
था?' रस्गोत्रा का जवाब था, 'बिल्कुल हुआ था. मेरा ख़्याल है निक्सन के
अलावा कोई राष्ट्रपति ऐसा नहीं कर सकता था. हम लोगों की मुलाकात 'फ़िक्स
थी.' हम लोग वहाँ बैठे हुए थे. लेकिन वो कमरे से बाहर ही नहीं निकले.
तुर्रा ये कि वो अंदर कुछ कर भी नहीं रहे थे निक्सन और किसिंजर.'
'उनका
मक़सद था कि इस महिला को उसकी जगह दिखाई जाए. वो इंदिरा गाँधी की बेइज़्ज़ती करना चाहते थे. बातचीत शुरू से ही कोई अच्छी नहीं चल रही थी. उनके बीच पहली मुलाकात जो हुई वाइट हाउज़ के लॉन में, उसमें निक्सन ने
बिहार में हुए सूखे का तो ज़िक्र किया और ये भी कहा कि उसके लिए हम मदद
देंगे. लेकिन भारत में उस समय जो 1 करोड़ बंगाली शर्णार्थी आए हुए थे जो हमारे ऊपर बोझ बन गए थे और शिविरों में भूखे मर रहे थे, निक्सन ने उनके
बारे में एक शब्द भी नहीं कहा. उनको शायद कुछ शक था कि हम जंग का ऐलान करने
आए हैं. उन्होंने जानबूझ कर इंदिरा गाँधी के साथ बदसलूकी की.'
मैंने रस्गोत्रा से पूछा कि जब बाद में निक्सन और इंदिरा मिले तो इंदिरा ने इसको किस तरह से लिया?
रस्गोत्रा ने बताया, 'उन्होंने इसको नज़रअंदाज़ किया. वो बहुत गरिमापूर्ण महिला थीं.
उन्हें निक्सन से जो कहना था, वो कह दिया. उसका लब्बोलबाब ये था कि पूर्वी
पाकिस्तान में जो क़त्लेआम चल रहा है, उसे आप बंद कराइए और जो शरणार्थी
हमारे देश में आ गए हैं, वो वापस पाकिस्तान जाएंगे. हमारे मुल्क में उनके लिए जगह नहीं है.'
80 के दशक में सोवियत संघ नें एक अत्याधुनिक लड़ाकू विमान मिग-29 बनाया
था. वो इस बात को इस हद तक गुप्त रख रहे थे कि उन्होंने उसके अस्तित्व तक
को नकार दिया था.
रस्गोत्रा उस बैठक में मौजूद थे जिसमें ये तय किया गया कि रूस भारत को मिग- 29 विमान देगा.
रस्गोत्रा बताते हैं, 'रूस के नेता ब्रेझनेव और इंदिरा गाँधी की मास्को
में बैठक हो रही थी. इंदिरा गाँधी मुझसे कहती रहती थीं कि देखना इस मामले में कुछ हो सकता है या नहीं. इस तरह की मीटिंग में कभी कभी ऐसा समय आ जाता
है कि कुछ बातचीत नहीं होती और एक तरह की चुप्पी छा जाती है. मैंने इसका
फ़ायदा उठाया. उनका रक्षा मंत्री उस्तीनोव मेरे सामने वाली कुर्सी पर बैठा
हुआ था. मैंने उससे कहा कि आपके पास एक जहाज़ है, जिसका विवरण मैंने कहीं पढ़ा है. हम चाहते हैं कि आप वो जहाज़ हमें बेचें.'
'ब्रेझनेव ये सुन
रहे थे. उन्होंने उस्तीनोव से चिल्ला कर पूछा कि ये क्या कह रहे हैं?
उस्तीनोव ने उन्हें फिर सारी बात बताई. ब्रेझनेव ने फिर पूछा हमारे पास वो
जहाज़ है या नहीं? उस्तीनोव ने कहा है तो सही. पहले तो वो सिरे से मना कर
रहे थे कि उनके पास ये विमान है. फिर उन्होंने कहा कि उनकी संख्या काफ़ी
नहीं है और फिर उनके ट्रायल भी चल रहे हैं.'
'ब्रेझनेव ने कहा 'कुछ नहीं उनकी जितने विमान चाहिए, उन्हें उपलब्ध कराओ.' मैंने अपने करियर से
निष्कर्ष निकाला है कि अगर किसी से आप की राय मल नहीं रही है या आपको किसी
से कुछ लेना है तो टकराव की जगह प्यार मोहब्बात से बात करिए. अगर हास्य की ज़रूरत हो तो उस इस्तेमाल कीजिए. कूटनीति में हास्य की भी बहुत बड़ी भूमिका
होती है.'
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